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कविता

तनाव बहुत हैं

इसाक ‘अश्क’


जीवन तो है
पर जीवन में
चारों ओर तनाव बहुत हैं।

हाथों में बंदूक
मनों में -
नफरत का तावा
जैसे जंगल
बोल रहा हो
बस्ती पर धावा

हलचल-तो है
भीड़ भाड़ भी
पर पथ में टकराव बहुत हैं।

चेहरों मढ़े
मुखौटे नकली
अधरों की भाषा,
अपनों तक
रह गई सिमट कर
सुख की परिभाषा

बाहर दिखें
भले एक पर
भीतर छिपे दुराव बहुत हैं।


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